Monday, April 3, 2017

"सादगी "


परम श्रद्धेय गुरुदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार

रवि और नितिन दोनों बचपन से ही एक साथ पढ़ते थे। दोनों ने ही नीम के पेड़ के नीचे बैठकर गांव के पंडितजी से सर्वप्रथम पढ़ना प्रारम्भ किया था। प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद नितिन अपने पिता के साथ शहर में अपनी आगे की पढ़ाई करने के लिए चला गया। बिछुड़ने का कष्ट दोनों को हुआ। परन्तु वे कर भी क्या सकते थे? नितिन ने बहुत बार अपने पिता के सामने जिद् की, "पिताजी मैं दादी माँ के पास रहकर गांव के स्कूल में ही आपकी तरह आगे की पढ़ाई करके बड़ा आदमी बनने का प्रयत्न करूँगा।" परन्तु उसके पिता ने उसकी एक न मानी--कहने लगे, "अरे! वह जमाना दूसरा था जब हम गांव के लोग भी जैसे-तैसे पढ़कर कुछ बन गये, अब वह दिन गये अब शिक्षा से अधिक शहरी चमक-दमक की जरूरत है। वह गांव में नहीं मिलती"।रवि कर ही क्या सकता था ? वह अपनी माँ की गोद मैं बैठकर घंटों रोता रहा, कई दिनों तक स्कूल नहीं गया, फिर एक दिन स्कूल के मास्टरजी का सन्देश मिलने पर स्कूल पहुँचा। मास्टरजी ने समझाकर, परिश्रमपूर्वक अपनी पुस्तकें पढ़ने का आदेश दिया। बचपन से ही अनुशासित रवि गुरु की आज्ञा से और भी अधिक परिश्रम से पढ़ने लगा। वह मास्टरजी के बताये अनुसार प्रत्येक दिन सूर्य के उगने से पहले उठकर अपने माता-पिता व सभी बड़ों के पैर छूकर प्रणाम करता,फिर जल पीकर घर से बाहर दूर खेतों में टहलने जाता, वहीं शौच आदि से निवृत्त होकर दातुन करता हुआ घर लौटता, आते ही स्वच्छ जल से स्नान करके पूर्व की ओर मुंह करके सूर्य नमस्कार करता, इसके साथ ही दूध पीकर अपनी पुस्तक पढ़ने बैठ जाता। वह माँ के बुलाने पर ही पुस्तक थैले में रखकर, नाश्ता करके, अपनी सभी आवश्यक सामग्री व पुस्तकें लेकर स्कूल जाता। जाते समय दोबारा माता-पिता के साथ सभी बड़ों के चरणस्पर्श करके,आशीर्वाद लेकर समय से स्कूल पहुँचता, वहाँ गुरुजनों का चरण स्पर्श करके पूरे मनोयोग से अपनी पढ़ाई करता। वह स्कूल समय में कभी भी किसी से हंसी, मज़ाक या झूठ आदि नहीं बोलता था। अपने सभी मित्रों के साथ घुल मिलकर तो अवश्य रहता था परन्तु कभी किसी से कोई स्पर्धा आदि नहीं रखता था। स्कूल से लौटकर पुनः सभी बड़ों के चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लेता एवं स्कूल का कार्य पूरा करके ही सांयकाल को घूमने जाता था। सांय के समय अपने सभी मित्रों के साथ खूब खेलता, दौड़ लगाता, रस्साकशी में भाग लेता। घर आकर अच्छी तरह पैर धोकर, खाना खाकर अपनी पढ़ाई प्रारम्भ कर देता। दो घंटे पढाई करके दूध पीकर अपने माता-पिता के चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लेकर सो जाता था। इस प्रकार रवि का जीवन बड़ा संतुलित चल रहा था। उसे छुट्टियों में अपने पुराने मित्र नितिन की कभी-कभी बहुत याद आती तो परेशान हो उठता था। तब पढ़ाई को छोड़कर माँ के काम में आकर हाथ बंटाने लगता। माँ के बार-बार मना करने पर भी कुछ देर अपने मन को लगाने के लिए कभी बर्तनों की सफाई में जुटता तो कभी दूसरे किसी काम में माँ का हाथ बंटाता। माँ सदा भगवान् से यही प्रार्थना करती, 'हे प्रभु! मेरा रवि मेरी बहुत सेवा करता है, उसे एक न एक दिन अवश्य बड़ा आदमी बनाना '। गुरुजन उसपर सबसे ज्यादा स्नेह रखते थे, उसे खूब आशीर्वाद देते। कड़ी मेहनत एवं बड़ों के आशीर्वाद का आज यह इतना बड़ा फल मिला कि रवि 'भारतीय प्रशासनिक सेवा ' पास करके कलक्टर बन गया। वह हर माह अपने माता पिता के साथ गांव में आकर ग्रामोत्थान के विभिन्न तरीके गांव वालों को बताता उनका सहयोग करता, अपने स्तर से प्रशासन से उन्हें हर संभव सहयोग दिलवाकर उसने गांव को स्वर्ग बना दिया। जब गांव का कोई बूढ़ा उसे रविबाबू कहकर पुकारता तो वह मुँह सिकोड़कर कहता, "बाबा! क्या मैं आपका रवि नहीं हूँ ?उत्तर में हाँ सुनकर कहता फिर रवि के साथ बाबू क्यों ?बाबा मैं सिर्फ रवि हूँ, आपका बच्चा, आपका बालक। रवि पर आज पूरे गांव को स्नेह एवं गर्व था।
एक दिन रवि अपनी माँ के साथ गांव आया तो उसी नीम के पेड़ के नीचे जहाँ उसका बचपन शुरु हुआ था, बहुत से लोगों को इकट्ठे देखा। रवि के कदम, उस ओर बढ़ गए वहाँ जाकर देखा तो एक अस्थि पंजर वाला व्यक्ति कराह रहा था, उस अस्थि पंजर के ढांचे वाले को देखकर रवि ने तुरंत पहचान लिया, वह भाव विह्वल हो उठा उसने कसकर नितिन को अपने सीने से लगा लिया, रोते हुए कहा, "नितिन! मेरे दोस्त, मेरे भाई ! तू  कहाँ था ?तेरी यह हालत कैसे हुई ?मुझे सब कुछ सच-सच बता दे। मैं तेरा दोस्त रवि, तेरी हर संभव सहायता करूंगा। " बड़ी मुश्किल से टूटते शब्दों में नितिन ने बताया, "रवि ! मेरे दोस्त ! मैं शहर में बड़े स्कूल में बड़ा बनने गया था, परन्तु वहाँ के पश्चिमी वातावरण ने मुझे बिगाड़ दिया। मैं अपने से बड़े विद्यार्थियों एवं कुछ आधुनिक अध्यापकों के साथ मिलकर, पढाई के स्थान पर नशा करना सीख गया, मेरे दोस्त! शहरी चकाचौंध ने मेरे जीवन को नष्ट कर दिया, आज मैं बिना नशे के एक क्षण भी नहीं रह सकता, मैं नशे की गोली के बिना दर्द से परेशान हूँ, मेरे भाई रवि! मुझे मात्र १ गोली मंगाकर खिला दे मुझे बचा ले! मेरे दोस्त मुझे बचा ले!" नितिन की दशा देखकर रवि बड़ा दुःखी हुआ। उसने रवि के उपचार की तैयारी की और शहर को लेकर चला। तभी गांव के वही पण्डित जी आये, उन्हें देख रवि ने झुककर प्रणाम किया, उनकी चरण धूलि मस्तक पर लगाई। उन्होंने नितिन की ओर देखकर अत्यन्त भावुक स्वर में कहा, बेटा रवि! ये भी मेरा ही शिष्य है, सादगी को छोड़ने के कारण इसकी यह दुर्दशा हुई, मेरे लाल! कहीं भी रहो, सादगी के आभूषण का कभी परित्याग मत करना। तू इसकी सहायता कर।"

Sunday, March 26, 2017

"सेवा का फल"



परम श्रद्धेय गुरुदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार

श्रीमद् भागवत् में एक प्रसिद्ध कथा आती है।
एक दासी महिला अपनी आजीविका के लिए श्रेष्ठ,वैदिक ब्राह्मणों के घरों में सेवा कार्य करती थी, उसे पारिश्रमिक के रूप में जो कुछ भी प्राप्त होता था उसी से अपना व अपने पुत्र का निर्वाह करती थी। उस दासी के एक पुत्र के अतिरिक्त दूसरी कोई संतान न थी तथा न ही कोई अन्य उसका सहारा था। वह अपने पुत्र के साथ अपने सेवा कार्य को पूर्ण मनोयोग से करती थी, वह बालक चूंकि सदैव अपनी माता के साथ ही रहता था अतः उसके मन पर ब्राह्मणों की अच्छी बात एवं भगवन्नाम कीर्तन का गहन प्रभाव पड़ा। वह सामान्य बालकों की तरह कोई ढोल आदि नहीं खेलता था अपितु तन्मय होकर संतों के द्वारा सुने हुए कीर्तन को ही सदा गाया करता था।
काल की गति बड़ी विचित्र होती है एक दिन संयोग वशात् उसकी माता सांय के समय गौशाला में दूध दुहने को गयी थी। मार्ग में सर्पदंश के कारण उसकी जीवन लीला समाप्त हो गयी। माँ के वियोग से अकेले बालक का मन संसार से उपराम हो गया। वह माँ के अतिरिक्त दूसरे किसी को जानता तक नहीं था। अतः उसने जगत् निर्माता, पतित पावन भगवान् की शरणागत होना ही उचित समझा। वह भयभीत सा होकर निर्जन वन की तरफ भागता ही चला गया। भूख-प्यास से व्याकुल होकर एक स्थान पर एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर बचपन में सुने भगवान् श्री नारायण के नाम का स्मरण करने लगा। वह प्रतिदिन प्रातःकाल से सांय तक श्री भगवान् नारायण का नाम स्मरण करता एवं कभी पत्ते आदि को खाकर ही अपनी क्षुधा पूर्ति कर लेता।  एक दिन जब वह श्री नारायण का ध्यान कर रहा था तब उसको ध्यान में चतुर्भुज धारी भगवान् श्री नारायण का दर्शन हुआ। वह बहुत देर तक भगवान् श्री नारायण का दर्शन करता रहा। कुछ देर के पश्चात् भगवान् का वह रमणीक विग्रह लुप्त हो गया, बालक पीड़ित हो उठा। आँखें खोलकर आर्तस्वर में भगवान् को इधर-उधर दौड़-दौड़ कर पुकारने लगा, परन्तु श्री नारायण का दर्शन नहीं हुआ। बहुत व्याकुल होने पर भगवान् श्री नारायण ने पुनः दर्शन देकर कहा, "बालक अपनी पूज्य माता के साथ नित्य प्रति संत-महात्माओं की अमोघ सेवा के फल से तुम जितेन्द्रिय होकर परमसंयमी तो बन गये हो पर अभी तुम्हारी कामनाओं का पूर्णतः विनाश नहीं हुआ है। अतः तुम्हें मेरा दर्शन नहीं हो सकता। बेटा! तुम शीघ्र ही अगले जन्म में मेरी समीपता को प्राप्त करोगे। " अखण्ड-सेवा-व्रत-धारिणी दासी माता का यही बालक आगे चलकर देवऋषि नारद के नाम से विख्यात हुआ। नारद आज भी समस्त लोकों में पूजनीय, आदरणीय एवं स्मरणीय है। सेवा का फल बड़ा मीठा होता है।

Monday, March 20, 2017

"सती द्रौपदी की भावपूर्ण प्रार्थना"





परम पूज्य श्री गुरूदेव द्वारा रचित एक भावपूर्ण प्रार्थना 

मैं अपने अमेरिका प्रवास से वापस भारत आ रहा था, तो मन बरबस सा होकर भगवान् श्री कृष्ण की लीलाओं में जाने लगा, आनंदकंद बांके बिहारी भगवान् श्री कृष्ण के सम्मुख सती द्रौपदी ने सभागृह में नग्न करने को आतुर दुःशासन से रक्षा के लिए जो प्रार्थना की थी, मन उस पद्य रूपी प्रार्थना में अटक गया, वहीं प्रार्थना रूप पंक्तियां हवाई जहाज में बैठे-बैठे ही लिपिबद्ध कर दी, मन की यह पंक्तियां किसे भायेंगी किसे नहीं परन्तु मुझे तो भा गई ..

मैं थारे पांव पडू जी गिरधारी,
हे जी रखियो लाज हमारी।।

जन्म हुवा था जी मेरा अनोखा, ब्याही गई तो वर मिला चोखा। 
मैं जी पांच वीरों की नारी, हे जी रखियो लाज हमारी,
मैं थारे पांव पडू जी गिरधारी।।

पाँचों छत्रपति बलधारी, हुए आज लाचार ये सारे। 
दुःशासन खींचे है सारी,  हे जी रखियो लाज हमारी,
मैं थारे पांव पडू जी गिरधारी।।

पीहर मेरा दूर घणी है, ससुर मेरा दुनिया में नहीं है। 
दादा भीष्म सा व्रतधारी, नहीं विपदा हरे हमारी। 
हे जी रखियो लाज हमारी,
मैं थारे पांव पडू जी गिरधारी।।

सत के पुतले द्रोण गुरूजी, बन गए पत्थर कृपाचार्यजी।
थारी बहना की खिंचरी सारी , हे जी विपदा पड़ गयी भारी। 
हे जी रखियो लाज हमारी,
मैं थारे पांव पडू जी गिरधारी।।

बिन तेरे हो भैया मेरे, दुःखड़े कौन हरेगा मेरे। 
तू चैतन्य नटवर और गिरधारी गिरधारी। 
हे जी रखियो लाज हमारी,
मैं थारे पांव पडू जी गिरधारी।।

Tuesday, February 28, 2017

"लालच "


परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार

नाम सुमिर पछतायेगा।
पापी जियरा लोभ करत है आज काल उठ जायेगा।
लालच लागी जन्म गंवाया माया भ्रम भुलायेगा।
धन जीवन का गरब न कीजे कागज ज्यों गल जायेगा।
अर्थात् मनुष्य के अंदर काम, क्रोध व लोभ आदि की वृत्ति प्राकृतिक देन है। इनसे युक्त मनुष्य सहज ही पापाचरण कर बैठता है। अतः हमें लालच आदि से बचने का प्रयत्न करना चाहिये। लालच के कारण मनुष्य की क्या दुर्गति होती है यह इस कहानी से स्पष्ट हो जाता है--
हीरामन नाम का एक ब्राह्मण बद्रीकाश्रम के पुण्य क्षेत्र में नैनसी नामक गाँव में अपने परिवार के साथ रहता था। हीरामन बड़ा भक्त था। वह गाँव के शिवालय में प्रतिदिन बड़ी निष्ठा एवं विधि से शिवपूजन किया करते थे। वहीं शिवालय के समीप एक बिल में एक महासर्प रहता था। पंडित हीरामन प्रत्येक दिन सर्प को दूध पिलाया करता थे। दूध पीकर वह सर्प एक बार बिल में जाता था और बाहर निकलकर उनको उसी समय एक स्वर्ण मुद्रा लाकर देता था। यही क्रम बरसों तक चलता रहा। एक दिन हीरामन को किसी कार्यवश पाँच दिनों के लिये बाहर जाना पड़ा। उसने सर्प देवता के सामने जाकर कहा कि मेरा बेटा मंगल मेरी ही भाँति नित्यप्रति आपकी सेवा को आया करेगा। सर्प देवता ने यह बात स्वीकार कर ली। पंडित हीरामन के बाहर चले जाने पर मंगल दूध लेकर सर्प के बिल के समीप रख आया, रोज़ की भाँति दूध पीते ही सर्प ने एक सोने की अशर्फी बिल के बाहर लाकर रख दी। यह देखकर मंगल बड़ा खुश हुआ। वह रोज़ की ही भाँति प्रत्येक दिन अशर्फी लाता था, एक दिन उसके मन में अशर्फियों के प्रति बड़ा लालच आ गया, वह सोचने लगा सर्प देवता के बिल में कोई बड़ा खजाना है, दूध के लालच के कारण सर्प देवता मुझे एक-एक अशर्फी ही प्रतिदिन देते हैं। क्यों न मैं इस महान सर्प को मारकर सारा खजाना एक ही दिन में ले लूँ ? यह सोचकर अगले दिन वह अपने साथ एक बड़ी लाठी लेकर शिवालय गया। सर्प देवता के दूध पीते समय लालची मंगल ने ज्यों ही लाठी का प्रहार सर्प पर करना चाहा उसी समय पहले से सावधान सर्प ने खड़े होकर तेज फुंकार छोड़ी तथा मंगल को डराकर तेजी से बिल में घुस गया। भयभीत मंगल बेहोश हो गया। होश में आने पर उसने देखा कि मेरी आँखों की ज्योति चली गयी है। यात्रा से लौटने पर हीरामन ब्राह्मण ने सर्प देवता के पास जाकर जोर-जोर से उन्हें पुकारा, परन्तु आज कोई उत्तर नहीं था। बहुत अधिक प्रयास करने पर निराश ब्राह्मण घर वापस आ गया। लालच के कारण उसके पुत्र ने सारा धन गंवा दिया।
लालच बुरी बला है।

Friday, February 10, 2017

" सच्ची सीख"




परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार

एक संत एक गाँव में गुड़ बाँट रहे थे।जब वे एक बालिका को गुड़ देने लगे, तब उसने इन्कार करते हुए कहा --"मैं नहीं लूंगी। " "क्यों ?"--संत ने पूछा।
"मुझे शिक्षा मिली है कि किसी से कोई वस्तु मुफ्त में नहीं लेनी चाहिये। "
"तो फिर कैसे लेनी चाहिये ?"--संत ने पूछा। बालिका बोली--"प्रभु ने प्रत्येक मनुष्य को काम करने के लिये दो-दो हाथ दिये हैं फिर किसी की कोई भी वस्तु मुफ्त में क्यों लें। "
संत ने कहा--"बेटी यह प्रसाद है भगवान का प्रसाद तो लेना ही चाहिये। "
"बिना भगवत् आराधना किये ही प्रसाद लेना ठीक नहीं। "
"तुम्हें यह शिक्षा किसने दी ?"
"मेरी माँ ने। "
संत उसकी माँ के पास गये और पूछा --"तुमने लड़की को यह सीख कैसे दी ?"
"क्यों महाराज ?"
"मैंने इसमें क्या नई बात कही ? भगवान ने जब हाथ-पैर दिये हैं तब मुफ्त क्यों लेना चाहिये ?"
"तुमने धर्मशास्त्र पढ़े हैं ?"
"ना "
"तुम्हारी आजीविका किस प्रकार चलती है ? संत ने आगे पूछा।"
वह बोली--"भगवान सबके सिर पर बैठा है। जंगल से लकड़ी काट लाती हूँ उससे अनाज मिल जाता है। मेरी यह लड़की भोजन बना लेती है। इस प्रकार मजदूरी से हमारा गुजारा हो जाता है। " संत ने पूछा--"इसके पिताजी कहाँ हैं ?" यह सुनकर वह महिला बोली--"मेरे पति संसार में थोड़ी आयु लेकर आये थे। वे जवानी में ही हमें अकेले छोड़कर चले गये। उन्होंने अपने पीछे कुछ जमीन व दो बैल भी छोड़े थे, फिर भी मैंने विचार किया मैं अपंग या बूढ़ी नहीं हूँ फिर अपने निर्वाह के लिये इस सम्पत्ति से क्या करूँ ?मैंने कभी खेती नहीं की है। मैं इस भूमि का क्या करूँ ?समझिये बस जैसे प्रभु ने ही प्रेरणा दी हो, मैंने उनकी छोड़ी हुई सारी सम्पत्ति को गाँव के लिये किसी कार्य में खर्च करने का निश्चय किया। बहुत दिनों तक मैं सोचती रही कि क्या कार्य करूँ ?फिर सोच विचार के बाद मैंने सारी भूमि बेचकर गाँव के लिये एक मीठे पानी के कुएँ का निर्माण करा दिया। साथ ही पशुओं के पीने के लिये पानी की एक हौज का भी निर्माण करा दिया। इस प्रकार मैंने पति की सम्पत्ति का हक़ छोड़कर उसका सद्व्यय किया। ऐसा करते हुए मैंने सोचा कि मैं पति की सम्पत्ति के लिये नहीं ब्याही आयी थी अपितु पति के लिये आयी थी। मैं ईश्वर की, सत्य की, प्राप्ति के मार्ग में आगे बढ़ने के लिये ब्याही गयी हूँ। मैंने त्याग, न्याय, परोपकार की समझ तथा संस्कार से बढ़कर दूसरी किसी शिक्षा को नहीं माना है। यही शिक्षा मैंने अपनी बेटी को भी दी है। "
संत ने उन दोनों को बहुत सा साधुवाद कहा।

Wednesday, February 8, 2017

"सम्मान का फल"




परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार

जग विख्यात कुरुक्षेत्र के मैदान में कौरव पांडव दोनों दल युद्ध के लिए एकत्र हो गये थे। सेनाओं की व्यूह रचना हो चुकी थी। वीरों के धनुष चढ़ चुके थे। युद्ध प्रारम्भ होने में कुछ ही क्षणों की देर जान पड़ती थी। सहसा धर्मराज युधिष्ठिर ने अपना कवच उतार कर रथ में रखा और अस्त्र-शस्त्र भी रखकर, अपने रथ से उतरकर पैदल ही कौरव सेना के प्रधान सेनापति पितामह भीष्म की ओर चल पड़े। 
अपने बड़े भाई को इस प्रकार निहत्थे, पैदल शत्रु-सेना की ओर जाते देखकर अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव भी अपने-अपने रथों से उतर कर धर्मराज युधिष्ठिर के पीछे-पीछे चलने लगे। अर्जुन के सारथी भगवान श्री कृष्ण चंद भी उनके साथ ही चल रहे थे। भीम, अर्जुन आदि ने चिन्तित होकर पूछा--महाराज! आप कहाँ जा रहे हैं ? शत्रु दल में इस तरह जाना उचित नहीं है। श्री कृष्ण चंद ने सबको शांत रहने का संकेत करते हुए कहा--"धर्मात्मा युधिष्ठिर सदा धर्म का ही आचरण करते हैं। हे वीरों! इस समय भी वे धर्माचरण में ही संलग्न हैं। 
उधर शत्रु दल में कोलाहल मच गया। लोग कह रहे थे--"युधिष्ठिर कायर है। वे प्रबल शत्रु को देख भयभीत होकर पितामह भीष्म की शरण में आ रहे हैं अथवा अपनी कूटनीति के कारण पितामह भीष्म को अपनी ओर मिला लेने का कोई प्रयास कर रहे हैं। "
धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह के पास जाकर प्रणाम करने के बाद कहा--"पितामह! हम आपके साथ युद्ध करने के लिए विवश हो गये हैं। इसके लिए आप हमें आज्ञा और आशीर्वाद दें।" भीष्म बोले--"हे भरत श्रेष्ठ! यदि तुम इस प्रकार आकर मुझसे युद्ध की अनुमति न माँगते तो मैं तुम्हें अवश्य पराजय का शाप दे देता। अब मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुम विजय प्राप्त करो। जाओ, युद्ध करो। वरदान माँगो। वत्स!मनुष्य धन का दास है, धन किसी का दास नहीं। मुझे धन के द्वारा कौरवों ने अपने पक्ष में कर रखा है, इसी से मैं नपुंसकों की भाँति कहता हूँ कि अपने पक्ष में युद्ध करने के अतिरिक्त तुम मुझसे जो चाहो वह मांग लो। युधिष्ठिर ने पूछा--"आप अजेय हैं, फिर आपको  संग्राम में हम किस प्रकार जीत सकते हैं ?"पितामह भीष्म ने उन्हें दुबारा किसी समय आकर यह बात पूछने को कहा। इसके बाद युधिष्ठिर द्रोणाचार्य के पास पहुँचे। उन्हें भी प्रणाम करने के के पश्चात् उनसे भी युद्ध करने की अनुमति माँगी। आचार्य द्रोण ने भी उन्हें विजय का आशीर्वाद देते हुए, पूछने पर अपनी पराजय का भी उपाय बता दिया--"वत्स!मेरे हाथ में शस्त्र रहते मुझे कोई मार नहीं सकता, परन्तु मेरा स्वभाव है कि किसी विश्वसनीय व्यक्ति के मुख से युद्ध में कोई अप्रिय समाचार सुनकर मैं धनुष रखकर ध्यानस्थ हो जाता हूँ। हे पुत्र! उस समय मुझे मारा जा सकता है।" फिर युधिष्ठिर द्रोणाचार्य को प्रणाम करके कुल गुरू कृपाचार्य के पास गये। उनको भी प्रणाम करके युद्ध की अनुमति माँगने पर कुल गुरू ने भी भीष्म पितामह के समान ही बातें कहकर आशीर्वाद दिया, किन्तु अपने उन कुल गुरू से युधिष्ठिर उनकी मृत्यु का उपाय न पूछ सके। यह दारूण बात पूछते-पूछते दुःख के मारे वे अचेत हो गये। कृपाचार्य ने उनका तात्पर्य समझ लिया था। वे बोले--"राजन्! मैं अवध्य हूँ, कोई भी मुझे मार नहीं सकता, परन्तु मैं वचन देता हूँ कि प्रत्येक दिन प्रातः काल भगवान् से तुम्हारी विजय के लिए प्रार्थना करूँगा और युद्ध में तुम्हारी विजय का बाधक नहीं बनूँगा। "
इसके पश्चात् युधिष्ठिर मामा शल्य के पास प्रणाम करने पहुँचे। शल्य ने भी पितामह की ही भाँति उन्हें आशीष देते हुए कहा कि मैं अपने निष्ठुर वचनों के द्वारा युद्ध में कर्ण को हतोत्साहित करता रहूँगा। 
गुरूजनों को प्रणाम करके उनकी अनुमति और विजय का आशीर्वाद लेकर युधिष्ठिर भाइयों के साथ अपनी सेना में लौट आए। उनकी इस विनम्रता ने भीष्म, द्रोण आदि के हृदय में उनके लिए ऐसी सहानुभूति उत्पन्न कर दी, जिसके बिना पांडवों की विजय अत्यंत दुष्कर थी। कहा भी गया है कि--
अभिवादन शीलस्य नित्य वृद्धोपसेविनः। 
तस्य चत्वारि वर्धन्ते आयुर्कीर्ति यशोबलम्।। 
अर्थात् अभिवादन से युक्त, सदैव बड़ों की सेवा करने वालों की आयु, कीर्ति, यश और बल इन चारों की वृद्धि होती है।

Tuesday, February 7, 2017

" लक्ष्य के प्रति एकाग्रता"



परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार

 द्रोणाचार्य हस्तिनापुर में पांडव एवं कौरव राजकुमारों को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दे रहे थे। बीच-बीच में आचार्य अपने शिष्यों के हस्त लाघव, लक्ष्यवेध, शस्त्र चालन की परीक्षा भी लेते रहते थे। एक बार उन्होंने एक लकड़ी का पक्षी बनवाकर एक सघन वृक्ष की ऊँची शाखा पर रखवा दिया। राजकुमारों से कहा गया कि उस पक्षी के बायें नेत्र में उन्हें बाण मारना है। सबसे पहले सबसे बड़े राजकुमार युधिष्ठिर ने धनुष उठा कर उस पर बाण चढ़ाया। उसी समय आचार्य ने उनसे पूछा --"तुम क्या देख रहे हो ?"
युधिष्ठिर बोले --"मैं वृक्ष को, आपको तथा अपने सभी भाईयों को देख रहा हूँ। "
आचार्य ने आज्ञा दी --"तुम धनुष रख दो। " युधिष्ठिर ने चुपचाप धनुष रख दिया। अब दुर्योधन उठे, बाण चढ़ाते ही उनसे भी आचार्य ने वही प्रश्न किया। दुर्योधन ने उत्तर दिया --"मैं सभी कुछ तो देख रहा हूँ। इसमें पूछने की क्या बात है ?"
उनसे भी आचार्य ने धनुष रख देने को कहा। बारी-बारी से सभी राजकुमार उठे, सभी से वही प्रश्न किया गया तथा सभी का एक ही जैसा उत्तर मिला। सबके अंत में आचार्य की आज्ञा से अर्जुन उठे और उन्होंने धनुष पर बाण चढ़ाया। उनसे भी आचार्य ने पूछा --"तुम क्या देख रहे हो ?"
अर्जुन ने उत्तर दिया--"मैं केवल यह वृक्ष देख रहा हूँ। "आचार्य ने पूछा --"मुझे और अपने भाइयों को क्या तुम नहीं देखते हो ?"
अर्जुन बोला --"नहीं गुरूवर इस समय तो मैं आपमें से किसी को नहीं देख रहा हूँ तथा न ही पूरा वृक्ष अब मुझे दिखता है, मैं तो केवल वह शाखा ही देख रहा हूँ जिस पर पक्षी है। "आचार्य ने फिर पूछा --वह शाखा कितनी बड़ी है?" अर्जुन बोले --"मुझे पता नहीं। मैं तो केवल पक्षी को ही देख रहा हूँ। "आचार्य ने फिर पूछा --"बेटा जरा बताओ तो कि पक्षी का क्या रंग है ?"अर्जुन ने कहा --"पूज्यवर मुझे अब पक्षी का रंग नहीं दिखाई देता है, हाँ उसका बायाँ नेत्र अवश्य काले रंग का दिखाई दे रहा है। आचार्य ने आज्ञा दी --ठीक है, केवल तुम ही लक्ष्य वेध कर सकते हो, बाण चलाओ। "अर्जुन के द्वारा छोड़ा गया बाण सीधे पक्षी के बाएँ नेत्र में चुभा। 
 आचार्य ने शिष्यों को समझाया --"बेटा !जब तक लक्ष्य पर दृष्टि इतनी स्थिर न हो कि लक्ष्य के अतिरिक्त दूसरा कुछ न दिखाई दें तब तक लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसी प्रकार आपको लक्ष्य प्राप्ति में पूरी एकाग्रता रखनी चाहिए। "