Wednesday, February 8, 2017

"सम्मान का फल"




परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार

जग विख्यात कुरुक्षेत्र के मैदान में कौरव पांडव दोनों दल युद्ध के लिए एकत्र हो गये थे। सेनाओं की व्यूह रचना हो चुकी थी। वीरों के धनुष चढ़ चुके थे। युद्ध प्रारम्भ होने में कुछ ही क्षणों की देर जान पड़ती थी। सहसा धर्मराज युधिष्ठिर ने अपना कवच उतार कर रथ में रखा और अस्त्र-शस्त्र भी रखकर, अपने रथ से उतरकर पैदल ही कौरव सेना के प्रधान सेनापति पितामह भीष्म की ओर चल पड़े। 
अपने बड़े भाई को इस प्रकार निहत्थे, पैदल शत्रु-सेना की ओर जाते देखकर अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव भी अपने-अपने रथों से उतर कर धर्मराज युधिष्ठिर के पीछे-पीछे चलने लगे। अर्जुन के सारथी भगवान श्री कृष्ण चंद भी उनके साथ ही चल रहे थे। भीम, अर्जुन आदि ने चिन्तित होकर पूछा--महाराज! आप कहाँ जा रहे हैं ? शत्रु दल में इस तरह जाना उचित नहीं है। श्री कृष्ण चंद ने सबको शांत रहने का संकेत करते हुए कहा--"धर्मात्मा युधिष्ठिर सदा धर्म का ही आचरण करते हैं। हे वीरों! इस समय भी वे धर्माचरण में ही संलग्न हैं। 
उधर शत्रु दल में कोलाहल मच गया। लोग कह रहे थे--"युधिष्ठिर कायर है। वे प्रबल शत्रु को देख भयभीत होकर पितामह भीष्म की शरण में आ रहे हैं अथवा अपनी कूटनीति के कारण पितामह भीष्म को अपनी ओर मिला लेने का कोई प्रयास कर रहे हैं। "
धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह के पास जाकर प्रणाम करने के बाद कहा--"पितामह! हम आपके साथ युद्ध करने के लिए विवश हो गये हैं। इसके लिए आप हमें आज्ञा और आशीर्वाद दें।" भीष्म बोले--"हे भरत श्रेष्ठ! यदि तुम इस प्रकार आकर मुझसे युद्ध की अनुमति न माँगते तो मैं तुम्हें अवश्य पराजय का शाप दे देता। अब मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुम विजय प्राप्त करो। जाओ, युद्ध करो। वरदान माँगो। वत्स!मनुष्य धन का दास है, धन किसी का दास नहीं। मुझे धन के द्वारा कौरवों ने अपने पक्ष में कर रखा है, इसी से मैं नपुंसकों की भाँति कहता हूँ कि अपने पक्ष में युद्ध करने के अतिरिक्त तुम मुझसे जो चाहो वह मांग लो। युधिष्ठिर ने पूछा--"आप अजेय हैं, फिर आपको  संग्राम में हम किस प्रकार जीत सकते हैं ?"पितामह भीष्म ने उन्हें दुबारा किसी समय आकर यह बात पूछने को कहा। इसके बाद युधिष्ठिर द्रोणाचार्य के पास पहुँचे। उन्हें भी प्रणाम करने के के पश्चात् उनसे भी युद्ध करने की अनुमति माँगी। आचार्य द्रोण ने भी उन्हें विजय का आशीर्वाद देते हुए, पूछने पर अपनी पराजय का भी उपाय बता दिया--"वत्स!मेरे हाथ में शस्त्र रहते मुझे कोई मार नहीं सकता, परन्तु मेरा स्वभाव है कि किसी विश्वसनीय व्यक्ति के मुख से युद्ध में कोई अप्रिय समाचार सुनकर मैं धनुष रखकर ध्यानस्थ हो जाता हूँ। हे पुत्र! उस समय मुझे मारा जा सकता है।" फिर युधिष्ठिर द्रोणाचार्य को प्रणाम करके कुल गुरू कृपाचार्य के पास गये। उनको भी प्रणाम करके युद्ध की अनुमति माँगने पर कुल गुरू ने भी भीष्म पितामह के समान ही बातें कहकर आशीर्वाद दिया, किन्तु अपने उन कुल गुरू से युधिष्ठिर उनकी मृत्यु का उपाय न पूछ सके। यह दारूण बात पूछते-पूछते दुःख के मारे वे अचेत हो गये। कृपाचार्य ने उनका तात्पर्य समझ लिया था। वे बोले--"राजन्! मैं अवध्य हूँ, कोई भी मुझे मार नहीं सकता, परन्तु मैं वचन देता हूँ कि प्रत्येक दिन प्रातः काल भगवान् से तुम्हारी विजय के लिए प्रार्थना करूँगा और युद्ध में तुम्हारी विजय का बाधक नहीं बनूँगा। "
इसके पश्चात् युधिष्ठिर मामा शल्य के पास प्रणाम करने पहुँचे। शल्य ने भी पितामह की ही भाँति उन्हें आशीष देते हुए कहा कि मैं अपने निष्ठुर वचनों के द्वारा युद्ध में कर्ण को हतोत्साहित करता रहूँगा। 
गुरूजनों को प्रणाम करके उनकी अनुमति और विजय का आशीर्वाद लेकर युधिष्ठिर भाइयों के साथ अपनी सेना में लौट आए। उनकी इस विनम्रता ने भीष्म, द्रोण आदि के हृदय में उनके लिए ऐसी सहानुभूति उत्पन्न कर दी, जिसके बिना पांडवों की विजय अत्यंत दुष्कर थी। कहा भी गया है कि--
अभिवादन शीलस्य नित्य वृद्धोपसेविनः। 
तस्य चत्वारि वर्धन्ते आयुर्कीर्ति यशोबलम्।। 
अर्थात् अभिवादन से युक्त, सदैव बड़ों की सेवा करने वालों की आयु, कीर्ति, यश और बल इन चारों की वृद्धि होती है।

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