परम श्रद्धेय गुरूदेव द्वारा रचित पुस्तिका "नैतिक शिक्षा" में से साभार
एथेनियन कवि एगोथेन को ग्रीक थियेटर में प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था उसी के उपलक्ष्य में उसने अपने परम विद्वान् दार्शनिक मित्रों को एक विशाल भोज दिया था। समागत मित्रों ने मनोरंजन के लिये वार्तालाप का विषय "प्रेम" रखा, और उस पर सबने अपना-अपना मतव्य रखना प्रारम्भ किया।
अपनी बात रखते हुए फेडरस ने कहा--"प्रेम परम देवता तथा सबका अग्रणी है। यह उनमें सर्वाधिक शक्तिशाली है।यह वह वस्तु है, जो एक साधारण मनुष्य को वीर के रूप में परिणत कर देती है क्योंकि प्रेमी अपने प्रेमास्पद के सामने अपने को कायर के रूप में प्रदर्शित करने में लज्जा का अनुभव करता है।वह तो अपना शौर्य प्रदर्शित कर अपने को शूरतम ही सिद्ध करना चाहता है।यदि मुझे एक ऐसी सेना दी जाए,जिसमें केवल प्रेमी ही प्रेमी हो तो मैं निश्चय ही विश्व विजय कर लूँ। "
पायनियस बोला --"आपकी बात बिलकुल ठीक है फिर भी आपको जीवों से प्रेम तथा दिव्य ईश्वरीय प्रेम को अलग-अलग स्वीकार करना ही होगा। सामान्य प्रेम--चमड़ियों के सौन्दर्य पर लुब्ध मन की यह दशा होती है कि यौवन का अंत होते-होते उसके पंख जम जाते हैं और वह उड़ जाता है, छूमंतर हो जाता है पर भगवत्-प्रीति अर्थात् परमात्म-प्रेम सनातन होता है उसकी गति सदा विकास की ओर ही होती है। "हास्य कवि अरिस्टोफेंस ने कहा --"प्राचीन युग में नर-मादा का एक होना ही विग्रह में समन्वय था। उसका स्वरूप गेंद जैसा गोल था, जिसके चार हाथ, चार पैर तथा दो मुँह होते थे। इसकी शक्ति तथा गति बड़ी तीव्र तथा तथा भयंकर थी। साथ ही इसका उत्साह अपार था। ये देवताओं पर विजय पाने के लिए आतुर हो रहे थे। उसी समय ग्रीक देश के सर्वश्रेष्ठ देवता जियस ने इनके दो विभाग इसलिए कर दिये जिससे इनकी शक्ति आधी रह जाए। उसी समय से स्त्री-पुरुष का विभाजन हुआ। ये दोनों शक्तियाँ आज भी पुनर्मिलन के लिए आतुर दिखती हैं। इस आतुरता को ही हम प्रेम शब्द से पुकारते हैं। " अरिस्टोफेंस की वार्ता पर सभी अतिथि जी भर कर हंसे।
इसके पश्चात् उस समय महान सन्त एवं दार्शनिक सुकरात ने अपने सिद्धान्त को प्रकाशित करते हुए कहा --
"प्रेम ईश्वरीय सौन्दर्य की भूख है। प्रेमी भक्त ईश्वर प्रेम के द्वारा अमृतत्व की ओर अग्रसर होता है। विद्या, पुण्य, यश, उत्साह, शौर्य, न्याय, विश्वास और श्रद्धा ये सभी उस सौन्दर्य के ही भिन्न-भिन्न रूप हैं। यदि एक शब्द में कहा जाये तो आत्मिक सौन्दर्य ही परम सत्य है और सत्य वह मार्ग है जो सीधे परमेश्वर तक पहुँचा देता है। "
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